Friday, April 10, 2009

आरक्षण और सवर्ण समाज की भेड़चाल

नवल किशोर कुमार

भारतीय चातुर्यवर्णी समाज में सवर्णों का बोलबाला और शूद्रों की हकमारी का इतिहास अत्यंत ही प्राचीन है। जबरदस्ती थोपे गये या युं कहें कि धर्म के नाम पर मानसिक रूप से शोषित शूद्र समाज के उत्थान के बारे में उच्च जाति के लोग कभी सोच ही नहीं सकते। जिस तुलसीदास द्वारा रचित रामचरित मानस का पाठ स्वर्णों के साथ-साथ शूद्र भी करते हैं उसी रामायण में वर्णित है – “पूजिये विप्र सकल गूण हीना, ना हि शूद्र ज्ञान प्रवीणा”। अर्थात, यदि ब्राहम्ण गुणहीन भी है तो वह अराधना करने योग्य है और यदि शूद्र गुणवान भी है तो अपमानित करने योग्य है। ख़ैर वह समाज जहां बचपन से ही यह शिक्षा दी जाती हो कि हम सवर्ण हैं, हमारे संसकार अलग हैं, ऐसे समाज से यह उम्मीद करना कि वे हमारा कल्याण सोचें, ब्यर्थ ही होगा।

आम तौर पर आरक्षण को लेकर लिख़े जाने वाले आलेख़ों में सवर्ण समाज के द्वारा आरक्षण की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगाया जाता है और यह कहा जाता है कि एक गरीब सवर्ण क्या इस देश का नागरिक नहीं है। वे यह भी कहने से नहीं चुकते कि संविधान द्वारा प्रदत्त समता का अधिकार का उल्लंघन है लेकिन सच्चाई है कि समाज के हाशिये पर रख़ा गया पिछड़ा समाज जिसे पढने की आजादी मिली भी तो अंग्रेजों के कारण जब सितंबर 1857 में तत्कालीन वायसराय ने जाति आधार पर शिक्षण संस्थानों में सदियों से लगे निषेध को समाप्त किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान में पिछड़ों को जो सुविधायें दी गयीं तो इसके लिये सवर्ण कहीं से भी जिम्मेवार नहीं कहे जा सकते। हांलाकि बहुतेरे यह कह्ते फ़िरते हैं कि बाबा साहेब को संविधान लिख़ने की जिम्मेवारी देने के पीछे सवर्ण ही थे। लेकिन सच्चाई अत्यंत ही कड़वी है कि बाबा साहेब के अलावा अन्य जितने भी कानूनविद देश में थे वे सारे के सारे कुर्सी से चिपके पड़े थे और उनके अनुसार संविधान किसी काजल की कोठरी से कम नहीं था। उनका मानना था कि अपनों के ख़िलाफ़ कानून बनाकर वे सत्ता पर काबिज नहीं रह सकते सो सारा का सारा बोझ बाबा साहेब के कंधे पर दिया गया।

पिछड़ों के आरक्षण के संबंध मे एक महत्व्पूर्ण मोड़ तब आया जब 1977 में जब कांग्रेस सरकार का पतन हुआ तब सत्ता में आई मोरारजी देसाई की सरकार ने मंडल कमीशन के जिम्मे पिछड़ों के आरक्षण की स्थिति पर अध्ययन कर सुझाव देने की जिम्मेवारी सौंपी। सवर्णों के बारे में एक सच्चाई है कि वे हारते हैं तब हुरते है और जितते हैं तो थुरते हैं। हांलाकि यह सच उपर से दिख़ाई नहीं देता। स्वर्णों ने पिछड़ों की एकता में ऐसी आग लगाई कि मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई। इसके बाद सत्ता में आयी कांग्रेसी प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने वर्ष 1980 में मंडल कमीशन द्वारा दिये गये सिफ़ारिशों को ठंढे बस्ते में डाल दिया। कायरता रुपी भेड़चाल के बारे में पिछड़ों को यह बताकर छला गया कि मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के लागू होने से देश की स्थिरता को ख़तरा हो सकता है। इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद सत्ता में आये देश के युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी से पिछड़ों ने यह अपेक्षा किया था कि वे हकमारी करने की कांग्रेसी नीति को समाप्त कर आरक्षण के मसले को तवज्जो देंगे।

लेकिन यह संभव न हुआ। वर्ष 1989 में जब वी0 पी0 सिंह ने मंडल कमीशन के सिफ़ारिशों की प्रथम किस्त लागू किया तो सवर्णों ने पूरे देश में कत्ले आम मचाया। इसके बावजूद सरकारी नौकरियों में 27 फ़ीसदी लागू हुआ। लेकिन इसके बाद सवर्ण समाज ने न्यायपालिका (जिसमें आज भी सवर्णों का ही बोलबाला है) के माध्यम से क्रीमी लेयर का अवरोध पैदा किया। अब यह तय करना ज़रूरी हो गया है कि क्रीमी लेयर क्या है और कितना कमाने वाला इस तबके में रहेगा। अभी का पैमाना 1993 में तय किया गया है और इसके मुताबिक साढे चार लाख़ सालाना से अधिक कमाने वाले को मलाईदार तबके में रखा जाएगा। 15 साल बाद भी यही आधार मान कर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है। यह वह वक्त था, जब नरसिंह राव की सरकार थी और मनमोहन सिंह अपनी अर्थिक उदारीकरण की परिभाषा संसद को समझा रहे थे। उस वक्त आर्थिक विकास की दर 4 फीसदी से ऊपर नहीं बढ रही थी। वर्ल्ड बैंक के नुमांइदे का तमगा झेल रहे मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के तौर पर ऐसा टर्न अराउंड किया कि देश के बड़े राजनीतिक दल आर्थिक नीतियों पर एकमत हो गए। नतीजतन आज भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर आठ फीसदी से ऊपर है, मगर आरक्षण के लिए मलाईदार तबके की परिभाषा वही पुरानी है। सच्चाई है कि एम्स या आईआईएम में दाखिले और पढ़ाई के लिए आज जितना पैसा लगता है वह इस तबके के वश से बाहर है। क्या बीस हज़ार प्रति माह कमाने वाला आईआईएम की लाखों रुपये की फीस भर सकता है?

बहरहाल आरक्षण की यह नीति किसी साज़िश का शिकार न बन जाए, इसके लिए ज़रूरी है कि क्रीमी लेयर या मलाईदार तबके का दायरा बढाया जाए। जब आप 9 फीसदी विकास दर प्राप्त करने की बात करते हैं और विकसित देश कहलाना चाहते हैं, तो क्रीमी लेयर की सीमा भी कम से कम छह लाख रुपये सालाना होनी चाहिए। भारत में जहां संपत्ति के बंटवारे पर इतनी विविधता है, वहां क्रीमी लेयर तय करना मुश्किल काम होगा। जहां एक बड़ी जनसंख्या की आमदनी खराब मानसून, बाढ़ या सूखा पर निर्भर है, वहां क्रीमी लेयर का क्या काम। क्या उन बच्चों को उस साल आरक्षण नहीं मिलेगा, जिस साल उस इलाके में फसल खराब हो जाएगी? क्या करेंगे जब ढाई लाख कमाने वाला ओबीसी किसान दो साल से सूखे की मार झेल रहा हो?

Wednesday, April 8, 2009